रविवार, 14 अगस्त 2016

kala sa kalla

काला सा काल्ला.. काला सा काल्ला..

मेरा काल्ला है सरदार, गोरयां नू दफा करो..

मैं आप तिल्ये दी तार, गोरयां नू दफा करो..

सास सरिये तेरे पंज पुत्तर, दो इल्बी दो शराबी

जेरा मेरे हाँ दा, ओह खिय्ला फूल गुलाबी


काला सा काल्ला, काला सा काल्ला

मेरा काला है सरदार गोरयां नू दफा करो

मैं आप तिल्ये दी तार, गोरयां नू दफा करो..

सोमवार, 25 जुलाई 2016

Kargil War 8 May to 26 July 1999

कारगिल युद्ध का सच 1
कारगिल की लड़ाई अपने आप में कई राज छुपाए हुए है। उस समय क्या हुआ था ये कोई नहीं जानता। हर कोई अलग-अलग अंदाजा लगाता है। हम आज आपको बताने जा रहे हैं कारगिल से जुड़े कुछ अहम राज जिन्हें जानकर आप हैरान हो जाएंगे।

कारगिल की लड़ाई में हमारे सैनिकों ने पाकिस्तानी फौज का जमकर मुकाबला किया था। पाकिस्तानी घुस्पैठियों ने लगातार गोलियां चलाई और हमारे सैनिकों ने उन्हें सामने से जवाब दिया।

भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में कारगिल युद्ध हुआ था। इसकी शुरुआत हुई थी 8 मई 1999 से जब पाकिस्तानी फौजियों और कश्मीरी आतंकियों को कारगिल की चोटी पर देखा गया था।

यह लड़ाई 14 जुलाई तक चली थी। माना जाता है कि पाकिस्तान इस ऑपरेशन की 1998 से तैयारी कर रहा था।
कारगिल युद्ध का सच 2
एक बड़े खुलासे के तहत पाकिस्तान का दावा झूठा साबित हुआ कि करगिल लड़ाई में मुजाहिद्दीन शामिल थे। यह लड़ाई पाकिस्तान के नियमित सैनिकों ने लड़ी। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व अधिकारी शाहिद अजीज ने यह राज उजागर किया था।
कारगिल युद्ध का सच 3
कारगिल सेक्टर में 1999 में भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों के बीच लड़ाई शुरू होने से कुछ सप्ताह पहले जनरल परवेज मुशर्रफ ने एक हेलिकॉप्टर से नियंत्रण रेखा पार की थी और भारतीय भूभाग में करीब 11 किमी अंदर एक स्थान पर रात भी बिताई थी। मुशर्रफ के साथ 80 ब्रिगेड के तत्कालीन कमांडर ब्रिगेडियर मसूद असलम भी थे। दोनों ने जिकरिया मुस्तकार नामक स्थान पर रात बिताई थी।
कारगिल युद्ध का सच 4
जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान ने 1998 में परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था। कई लोगों का कहना है कि कारगिल की लड़ाई उम्मीद से ज्यादा खतरनाक थी। हालात को देखते हुए मुशर्रफ ने परमाणु हथियार तक इस्तेमाल करने की तैयारी कर ली थी।
कारगिल युद्ध का सच 5
पाकिस्तानी सेना कारगिल युद्ध को 1998 से अंजाम देने की फिराक में थी। इस काम के लिए पाक सेना ने अपने 5000 जवानों को कारगिल पर चढ़ाई करने के लिए भेजा था।
कारगिल युद्ध का सच 6
कारगिल की लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी एयर फोर्स के चीफ को पहले इस ऑपरेशन की खबर नहीं दी गई थी। जब इस बारे में पाकिस्तानी एयर फोर्स के चीफ को बताया गया तो उनहोंने इस मिशन में आर्मी का साथ देने से मना कर दिया था।
कारगिल युद्ध का सच 7
उर्दू डेली में छपे एक बयान में नवाज शरीफ ने इस बात को स्वीकारा था कि कारगिल का युद्ध पाकिस्तानी सेना के लिए एक आपदा साबित हुआ था। पाकिस्तान ने इस युद्ध में 2700 से ज्यादा सैनिक खो दिए थे। पाकिस्तान को 1965 और 1971 की लड़ाई से भी ज्यादा नुकसान हुआ था।
कारगिल युद्ध का सच 8
भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ कारगिल युद्ध में मिग-27 और मिग-29 का प्रयोग किया था। मिग-27 की मदद से इस युद्ध में उन स्थानों पर बम गिराए जहां पाक सैनिकों ने कब्जा जमा लिया था। इसके अलावा मिग-29 करगिल में बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ इस विमान से पाक के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलें दागी गईं थीं।
कारगिल युद्ध का सच 9
8 मई को कारगिल युद्ध शुरू होने के बाद 11 मई से भारतीय वायुसेना की टुकड़ी ने इंडियन आर्मी की मदद करना शुरू कर दिया था। कारगिल की लड़ाई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस युद्ध में वायुसेना के करीब 300 विमान उड़ान भरते थे।
कारगिल युद्ध का सच 10
कारगिल की ऊंचाई समुद्र तल से 16000 से 18000 फीट ऊपर है। ऐसे में उड़ान भरने के लिए विमानों को करीब 20,000 फीट की ऊंचाई पर उड़ना पड़ता है। ऐसी ऊंचाई पर हवा का घनत्व 30% से कम होता है। इन हालात में पायलट का दम विमान के अंदर ही घुट सकता है और विमान दुर्घटनाग्रस्त हो सकता है।
कारगिल युद्ध का सच 11
भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में लड़े गए कारगिल युद्ध में तोपखाने (आर्टिलरी) से 2,50,000 गोले और रॉकेट दागे गए थे। 300 से अधिक तोपों, मोर्टार और रॉकेट लॉन्चरों ने रोज करीब 5,000 बम फायर किए थे। लड़ाई के महत्वपूर्ण 17 दिनों में प्रतिदिन हर आर्टिलरी बैटरी से औसतन एक मिनट में एक राउंड फायर किया गया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह पहली ऐसी लड़ाई थी, जिसमें किसी एक देश ने दुश्मन देश की सेना पर इतनी अधिक बमबारी की थी।

मजाक नहीं, रिपोर्ट में था - ज्यादा खाने से मरा चिंकारा

The surprising facts of black buck case in which Salman Khan has been acquitted by Jodhpur High Court

चिंकारा केस के 8 अजीबो-गरीब फैक्ट्स:

1. इस केस का सबसे महत्वपूर्ण गवाह सलमान की जिप्सी का ड्राइवर हरीश दुलानी एक बयान देने के बाद गायब हो गया. 17 सालों से उसका कोई अता-पता नहीं.

2. पुलिस ने लोगों की शिकायत के बावजूद FIR नहीं दर्ज की. अखबार में खबर आने के बाद करना पड़ा.

3. इस केस की रिपोर्ट में Deer को Dear लिखा गया था. कहते हैं कि ये मजाक-मजाक में ही किया गया था.

4. फिर रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि हिरन की मौत ‘बहुत ज्यादा खाने’ से हो गई थी.

5. बाद में ये भी कहा गया कि चिंकारा ‘ऊंचा कूदने’ से मर गया था.

6. सलमान के साथ तीन हीरोइनें तब्बू, नीलम और सोनाली बेंद्रे भी थीं. सैफ अली खान, यशपाल और सतीश शाह भी थे. सलमान के अलावा बाकी सब को छोड़ दिया गया. जब पका मीट सबने खाया, तो बाकी बेक़सूर कैसे हुए?

7. बिश्नोई समाज के लोगों के बयान का कोई आधार ही नहीं ‘पाया गया’. ये समझ नहीं आया कि जिन लोगों ने जिप्सी को देखा था, उनके बयान का क्या हुआ.

8. ठीक है कि जिप्सी में मिले छर्रे सलमान की बन्दूक के नहीं हैं. तो फिर किसके हैं? किसने रख दिए थे जिप्सी में छर्रे?

बंगलूरू के डॉ. विशाल राव ने एक ऐसे चिकित्सा यंत्र की खोज की है जिससे गले के कैंसर से पीड़ित लोग सर्जरी के बाद भी ठीक से बोल सकते है। और इस यंत्र की क़ीमत सिर्फ 50 रूपये है।
गले के कैंसर से पीड़ित, कोलकता का एक मरीज 2 महीने से कुछ खा नहीं पा रहा था। वो निराश था, कुछ बोलता नहीं था और उसे नाक में लगे एक पाइप से खाना पड़ रहा था। गरीब होने की वजह से वो अच्छा इलाज नहीं ले सकता था। उसके डॉक्टर ने उसे बंगलूरु के एक सर्जन के बारे में बताया। वो बंगलूरु गया, डॉक्टर से मिला और इलाज शुरू किया। सिर्फ 5 मिनट के उपचार के बाद वो बोल पा रहा था, खाना खा रहा था और उसके बाद वो अपने घर जाने के लिये तैयार था। ये सब मुमकिन हुआ डॉ. विशाल राव की वजह से!
डॉ. राव एक ओंकोलोजिस्ट है और बंगलूरू में हेल्थ केयर ग्लोबल (HCG) कैंसर सेंटर में सर और गले की बीमारियों के सर्जन हैं।
आम तौर पर मिलने वाले गले के प्रोस्थेसिस की कीमत 15000 रुपये से लेकर 30000 रुपये होती है और उसे हर छह महीने बाद बदलना पड़ता है। लेकिन डॉ. राव के प्रोस्थेसिस की कीमत सिर्फ 50 रुपये है।
वॉइस प्रोस्थेसिस (Voice prosthesis ) उपकरण सिलिकॉन से बना है। जब मरीज का पूरा वॉइस बॉक्स या कंठनली (larynx) निकाल दी जाती है तब ये यंत्र उन्हें बोलने में मदत करता है। सर्जरी के दौरान या उसके बाद विंड-पाइप और फ़ूड- पाइप को अलग करके थोड़ी जगह बनायी जाती है। ये यंत्र तब वहा बिठाया जाता है। फ़ूड-पाइप की मदद से फेफड़ो में हवा (ऑक्सीजन) भरी जाती है। फेफड़ों से आनेवाली हवा से वॉइस बॉक्स में तरंगे उत्सर्जित होती है। तो वहां कंपन और आवाज पैदा करके, दिमाग उसे संदेश में परिवर्तित करता है। यंत्र एक साइड से बंद होता है जिससे भोजन या पानी फेफड़ों में नहीं जा पाता है। यह यंत्र 2.5 सेमी लम्बा है और इसका वजन 25 ग्राम है।
करीब ढाई साल पहले कर्नाटक का एक मरीज डॉ. राव के पास आया था। उस आदमी ने एक महीने से कुछ नहीं खाया था और वह ठीक तरह से बोल भी नहीं पा रहा था। सर्जरी के बाद उसके गले से वॉइस बॉक्स निकाल दिया गया था। उसके लिए प्रोस्थेसिस का खर्चा उठाना नामुमकिन था। वह परेशान था और जिंदगी से हार चुका था। डॉ. राव ने उससे मदद करने का वादा किया।
पहले जब भी डॉ. राव के पास ऐसे मरीज आते थे, वे दवा विक्रेताओं से डिस्काउंट मांगते थे, लोगों से चंदा इकठ्ठा करते थे और मरीजों को दान कर देते थे। पर कर्नाटक के इस मरीज के एक दोस्त, शशांक महेश ने डॉ. राव से कहा कि पैसों का इंतज़ाम तो वे खुद कर लेंगे। उसने डॉ. राव से एक गंभीर सवाल पूछा –
“आप इन सब लोगों पर निर्भर क्यों रहते हैं है? आप खुद ऐसे मरीजों के लिये कोई इलाज या कोई यंत्र क्यों नहीं बनाते?”
डॉ. राव को पता था कि यह काम उनकी क्षमता के परे है। उन्हें इसके लिये एक यंत्र का निर्माण करना था, जिसकी कल्पना तो उन्होंने कर रखी थी पर उसे बनाने के लिये तकनीकी ज्ञान उनके पास नहीं था। पर शशांक एक उद्योगपति था और जो कौशल डॉ. राव के पास नहीं था वह उसमें था। डॉ. राव कल्पना और शसांक महेश के तकनीकी ज्ञान और दोनों की पूँजी से इस यंत्र का आविष्कार हुआ था। डॉ. राव का कहना है:
“गरीबों को फटे-पुराने कपडे दान में देना मुझे कभी पसंद नहीं था, क्यूंकि गरीब होने के बावजूद वे इससे ज्यादा के हकदार है। इसी तरह सिर्फ इसलिए कि मेरे मरीज़ गरीब है, मैं उनके लिए किसी हल्के स्तर के यंत्र का निर्माण नहीं करना चाहता था। आखिर वो भी मरीज़ है, उन्हें भी बेहतरीन इलाज करवाने का हक़ है। हमारा मानना है कि अपनी आवाज़ पर हर किसीका अधिकार है। हम किसी मरीज़ से उसकी आवाज़ हमेशा के लिए सिर्फ इसलिए नहीं छीन सकते क्योंकि वह गरीब है। इसलिए हमने इस यंत्र को बनाने के लिए सबसे बेहतरीन सामग्री का इस्तेमाल किया है।

शनिवार, 16 जुलाई 2016

Farmers Cries Mechanism Delirious

देश की कुल आर्थिक व्यवस्था में किसानों का कितना योगदान है एवं प्रतिफल के रूप में उन्हें कितना और क्या मिल रहा है अगर सरकारें इस पर सर्वेक्षण कर लें तो एक तथ्य हमारे सामने आएगा की देश की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अन्नदाता के हिस्से में सिर्फ आंसू और कराहें ही आ रहें हैं।

रोता किसान बेसुध तंत्र


-सुशील कुमार शर्मा

‘बस हमरो गल्लो भर सस्तो हे बाकीं सभै चीजें महंगी हो रई हैं।’

कृषि प्रधान देश के अन्नदाता की आँखों के आंसू तंत्र और राजनीति को भले ही न दिख रहे हों, लेकिन वो अनवरत बह रहे हैं। मेरे गांव के छोटे किसान परमू की वो भरी आँखें मैं भुला नहीं पा रहूँ। "सोयाबीन चौपट हो गई, मूंग मंगो बन गई, धान की हालत पतरी है। अब तो मरवो और बचो है, तो बा मौत भी नै आ रई है।" हालांकि उसके उत्तर से मुस्कराहट मेरे चहरे पर आ गई लेकिन उसकी पीड़ा शब्दों पर सवार हो कर अंदर तक तैर गई।



इतने सालों के बाद भी भारत के अन्नदाता असहाय है, दूसरों पर आश्रित है। प्रकृति, राजनीति, तंत्र से अकेला लड़ता हुआ बेबस, असहाय, घुटता हुआ, मौत के मुंह में जाने को विवश। उसकी दशा देख कर माधव शुक्ल मनोज की कुछ पंक्तिया याद आ गईं – 

सूख गओ ककरी को जउआ, छाती में उग गओ अकौआ। 

सर के ऊपर आज विपत को बोलो कारो कौआ। 

ऐसो लगे समय ने रख दओ धुनकी रूई पे पौआ। 



आज भी आज़ादी के 68 साल बाद भी अधिकांश भारतीय कृषि इन्द्र देव के सहारे ही चलती है। इंद्र देवता के रूठ जाने पर सूखा, कीमतों में वृद्धि, कर्ज का अप्रत्याशित बोझ, बैंकों के चक्कर, बिचोलियों एवं साहूकारों के घेरे में फँस कर छोटा किसान या तो जमीन बेंचने पर मजबूर हैं या आत्महत्या की ओर अग्रसर हैं। 



आधिकारिक आकलनों में प्रति 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है, इसमें छोटे एवं मझोले किसान हैं, जो आर्थिक तंगी की सूरत में अपनी जान गँवा रहे हैं। अगर आत्महत्या के मामलों की सघन जाँच की जाए, तो ऐसे किसानों की संख्या ज्यादा निकलेगी जो मजदूर एवं शोषित वर्ग के हैं एवं जिनका जमीन पर स्वामित्व तो है, लेकिन उनकी जमीन किसी साहूकार एवं बड़े किसान के पास गिरवी रखी है एवं वो बटहार का काम करते है। 



सरकारों के हर प्रयास के बाद भी आखिर छोटे एवं मँझोले किसानों की दशा और दिशा में अंतर क्यों नहीं आ रहा है? यह एक अनुत्तरित प्रश्न हम सभी के जेहन में उभरता है। इसका अगर विश्लेषण किया जाये तो प्रथमदृष्टया बात आती है कि सरकारी योजनाओं का जमीनी क्रियान्वयन तंत्र द्वारा नहीं किया जा रहा है। 



आज भी छोटे एवं सीमांत किसान पुराने ढर्रे की ही खेती कर रहे है। उन्हें उन्नत एवं परम्परागत तरीके को एक साथ जोड़ कर खेती सीखने की आवश्यकता है। इसके लिए वृहद स्तर पर अभियान चलने की जरूरत है। एक ऐसा अभियान, जो छोटे एवं सीमांत किसानों को दृष्टिगत रखते हुए क्रियान्वित किया जाए। 



अक्सर देखा जाता है की किसान अपने खेत की मृदा का परिक्षण नहीं कराते हैं, न ही उस मिटटी के अनुसार फसल बोते हैं, जिससे पैदावार में काफी गिरावट देखी गई है। सरकारों एवं तंत्र को एक व्यापक कार्यक्रम का इस उद्देश्य से जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए। 



कृषि विपणन व्यवस्था को सीमांत किसानों के लिए उपयोगी बनाने की आवश्यकता है, ताकि किसान बिचोलियों की मार से बच सकें। लघु एवं सीमांत किसानों को सब्जी एवं फल उत्पादन के साथ साथ टपक सिचांई प्रबंधन का समावेशीकरण कर कृषि को प्रोन्नत करने के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। पर्याप्त जल संसाधन होने के बाद भी किसानो के खेत उसकी क्यों रह जाते हैं? इसका मुख्य कारण जल के उचित प्रबंधन का अभाव है। जल प्रवंधन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आज तक सरकारें कोई ठोस कानून एवं योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर पाईं है। ये चिंता का विषय है। किसानों को अंतर्वर्ती फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहन की जरूरत है, ताकि मुख्य फसल के ख़राब होने पर अंतरवर्ती फसल द्वारा कुछ भरपाई कर सके। 



2006 में बनी स्वामीनाथन कमेटी ने सिफारिश की थी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, बाजार मूल्य का 50% से अधिक होना चाहिए एवं इस 50% की वृद्धि को किसान का मेहनताना माना जाना चाहिए। लेकिन स्थिति बिलकुल अलग है। न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं बाजार मूल्य में ज्यादा अंतर नहीं है, इस कारण किसान को लाभांश नहीं मिल पा रहा है। 



लघु किसानों की सबसे बड़ी परेशानी है पूँजी या लागत का न होना। अपने घरेलु जरूरतों से लेकर कृषि की लागत तक उन्हें पैसा चाहिए एवं इसके लिए वो साहूकार एवं किसान क्रेडिट कार्ड पर निर्भर रहते हैं। किसान क्रेडिट कार्ड से चुकि सरलता से पैसा मिल जाता है, अतः इसका उपयोग वो कृषि की जगह अपने सामाजिक एवं घरेलु जरूरतों की पूर्ती में लगा देता है एवं पैसा खर्च होने के बाद किसानी की लागत के लिए साहूकारों के चुंगल में फंस जाता है। 



वर्ष 1998 से लेकर 2009 तक करीब 3 करोड़ से ऊपर किसान क्रेडिट कार्ड किसानों को जारी किया जा चुके हैं एवं करीब 1 लाख 97 हज़ार करोड़ रूपये इन क्रेडिट कार्ड के द्वारा किसानो के पास कृषि संवर्धन के लिए पहुँच चुका है, लेकिन सरकार के पास इस बात का कोई सही तथ्यात्मक आंकड़ा नहीं है कि इतनी भारी राशि का कितना भाग कृषि लागत के रूप में प्रयोग किया गया है। सरकारों को इस बात का नियंत्रण रखना चाहिए की किसान क्रेडिट कार्ड के पैसों का उपयोग लघु किसान खेती की लागत के रूप में ही करें ताकि वो अधिक पैदावार लेकर खुद पूँजी खड़ी कर सके। 



सभी पार्टियां चुनावी वादों में किसानों के हितों को सर्वोपरि बताती हैं, लेकिन फसल की बर्बादी पर घड़याली आंसू बहा कर किसानों को भुगतने के लिए अकेला छोड़ देती हैं जबकि पूरे भारत की विधान सभाओं एवं संसद में अधिकांश प्रतिनिधि किसान परिवारों से हैं। किसानों की आर्थिक एवं सामाजिक मांगों को लेकर कई किसान मोर्चे एवं आंदोलन खड़े हुए लेकिन विडंबना ये है की इन सभी आंदोलनों का नेतृत्व समृद्धशाली किसानों द्वारा किया जाता रहा है। जिस शोषित किसान के हितों के लिए ये आंदोलन हुए हैं वो बेचारा भीड़ में गुम हो जाता है एवं उसके हित राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ जाते हैं। 



देश की कुल आर्थिक व्यवस्था में किसानों का कितना योगदान है एवं प्रतिफल के रूप में उन्हें कितना और क्या मिल रहा है अगर सरकारें इस पर सर्वेक्षण कर लें तो एक तथ्य हमारे सामने आएगा की देश की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अन्नदाता के हिस्से में सिर्फ आंसू और कराहें ही आ रहें हैं। 



वर्ष 1991 के बाद से विश्व बैंक के निर्देशों पर भारतीय सरकारों ने अनुदान (सब्सिडी ) को काम करने एवं उपादानों को मंहगा करने की की नीति अपनायी, दूसरी और विश्व व्यापार संघठन के खुले बाजार एवं खुले आयात की नीति के तहत कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसान की कमर तोड़ दी है। बढ़ती कृषि लागत एवं कृषि उपज के घटते दामों के बीच भारतीय किसान पिस रहा है। इस विकट स्थिति से मुंह मोड़ कर भारतीय सरकारें वैश्वीकरण से प्रभावित कथित सुधारों को लागू करने पर कटिबद्ध दिखाई दे रहीं हैं। नए बीज कानून का क्रियान्वयन करना, हदबंदी कानून को शिथिल करना, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विपणन अधिकार देना, कांट्रेक्ट खेती की खुली छूट, खतरनाक तकनीकियों से खेती को अधिक लाभकारी बनाने की जिजीविषा लघु एवं सीमांत किसानों को आत्महत्याओं की ओर धकेल रही है। 



अगर खेती को पूँजी निर्माण का जरिया बनाया जाता है एवं प्रकृति विरोधी तकनीकों का उपयोग कर किसानों एवं मजदूरों से रोजगार छीना जाता है एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शिकंजे अगर भारतीय खेती पर कसे जाते हैं तो भारतीय लघु किसान भविष्य में निश्चित ही गहन विपत्ति से गुजरने वाले हैं। 



भारत में विकास दर बढ़ाने का मूलमंत्र कृषि का विस्तार एवं विकास ही है, लेकिन यह विकास लघु एवं सीमांत किसानों के हलों से निकलना चाहिए न की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पूंजी निर्माण करने वाली खतरनाक तकनीकों से होना चाहिए। कृषि प्रक्रिया को अधिक सरल एवं प्रभावशाली व उन्नत बनाने के लिए एवं लघु किसानों के हितों को ध्यान में रख कर ठोस योजनाओं का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित होना चाहिए। तभी भारत का किसान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी एवं गरीब किसान के आंसू मुस्कान में बदल सकेंगे। किन्तु दिल्ली अभी दूर है। अभी तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि- 



धान की बाली सूख गई है, चना चर गई इल्ली। 
सांटो पर गओ सींक सो पतरो, सो रई है नई दिल्ली।

सुशील कुमार शर्मा

लेखक परिचय : - सुशील कुमार शर्मा व्यवहारिक भूगर्भ शास्त्र और अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक हैं। इसके साथ ही आपने बी.एड. की उपाधि भी प्राप्त की है। आप वर्तमान में शासकीय आदर्श उच्च माध्य विद्यालय, गाडरवारा, मध्य प्रदेश में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) के पद पर कार्यरत हैं। आप सामाजिक एवं वैज्ञानिक मुद्दों पर चिंतन करने वाले लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं तथा आपकी रचनाएं समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आपसे सुशील कुमार शर्मा (वरिष्ठ अध्यापक), कोचर कॉलोनी, तपोवन स्कूल के पास, गाडरवारा, जिला-नरसिंहपुर, पिन -487551 (MP) के पते पर सम्पर्क किया जा सकता है। ज्यादा जानकारी के लिए क्लीक करें सुनिल कुमार शर्मा