सोमवार, 25 जुलाई 2016


बंगलूरू के डॉ. विशाल राव ने एक ऐसे चिकित्सा यंत्र की खोज की है जिससे गले के कैंसर से पीड़ित लोग सर्जरी के बाद भी ठीक से बोल सकते है। और इस यंत्र की क़ीमत सिर्फ 50 रूपये है।
गले के कैंसर से पीड़ित, कोलकता का एक मरीज 2 महीने से कुछ खा नहीं पा रहा था। वो निराश था, कुछ बोलता नहीं था और उसे नाक में लगे एक पाइप से खाना पड़ रहा था। गरीब होने की वजह से वो अच्छा इलाज नहीं ले सकता था। उसके डॉक्टर ने उसे बंगलूरु के एक सर्जन के बारे में बताया। वो बंगलूरु गया, डॉक्टर से मिला और इलाज शुरू किया। सिर्फ 5 मिनट के उपचार के बाद वो बोल पा रहा था, खाना खा रहा था और उसके बाद वो अपने घर जाने के लिये तैयार था। ये सब मुमकिन हुआ डॉ. विशाल राव की वजह से!
डॉ. राव एक ओंकोलोजिस्ट है और बंगलूरू में हेल्थ केयर ग्लोबल (HCG) कैंसर सेंटर में सर और गले की बीमारियों के सर्जन हैं।
आम तौर पर मिलने वाले गले के प्रोस्थेसिस की कीमत 15000 रुपये से लेकर 30000 रुपये होती है और उसे हर छह महीने बाद बदलना पड़ता है। लेकिन डॉ. राव के प्रोस्थेसिस की कीमत सिर्फ 50 रुपये है।
वॉइस प्रोस्थेसिस (Voice prosthesis ) उपकरण सिलिकॉन से बना है। जब मरीज का पूरा वॉइस बॉक्स या कंठनली (larynx) निकाल दी जाती है तब ये यंत्र उन्हें बोलने में मदत करता है। सर्जरी के दौरान या उसके बाद विंड-पाइप और फ़ूड- पाइप को अलग करके थोड़ी जगह बनायी जाती है। ये यंत्र तब वहा बिठाया जाता है। फ़ूड-पाइप की मदद से फेफड़ो में हवा (ऑक्सीजन) भरी जाती है। फेफड़ों से आनेवाली हवा से वॉइस बॉक्स में तरंगे उत्सर्जित होती है। तो वहां कंपन और आवाज पैदा करके, दिमाग उसे संदेश में परिवर्तित करता है। यंत्र एक साइड से बंद होता है जिससे भोजन या पानी फेफड़ों में नहीं जा पाता है। यह यंत्र 2.5 सेमी लम्बा है और इसका वजन 25 ग्राम है।
करीब ढाई साल पहले कर्नाटक का एक मरीज डॉ. राव के पास आया था। उस आदमी ने एक महीने से कुछ नहीं खाया था और वह ठीक तरह से बोल भी नहीं पा रहा था। सर्जरी के बाद उसके गले से वॉइस बॉक्स निकाल दिया गया था। उसके लिए प्रोस्थेसिस का खर्चा उठाना नामुमकिन था। वह परेशान था और जिंदगी से हार चुका था। डॉ. राव ने उससे मदद करने का वादा किया।
पहले जब भी डॉ. राव के पास ऐसे मरीज आते थे, वे दवा विक्रेताओं से डिस्काउंट मांगते थे, लोगों से चंदा इकठ्ठा करते थे और मरीजों को दान कर देते थे। पर कर्नाटक के इस मरीज के एक दोस्त, शशांक महेश ने डॉ. राव से कहा कि पैसों का इंतज़ाम तो वे खुद कर लेंगे। उसने डॉ. राव से एक गंभीर सवाल पूछा –
“आप इन सब लोगों पर निर्भर क्यों रहते हैं है? आप खुद ऐसे मरीजों के लिये कोई इलाज या कोई यंत्र क्यों नहीं बनाते?”
डॉ. राव को पता था कि यह काम उनकी क्षमता के परे है। उन्हें इसके लिये एक यंत्र का निर्माण करना था, जिसकी कल्पना तो उन्होंने कर रखी थी पर उसे बनाने के लिये तकनीकी ज्ञान उनके पास नहीं था। पर शशांक एक उद्योगपति था और जो कौशल डॉ. राव के पास नहीं था वह उसमें था। डॉ. राव कल्पना और शसांक महेश के तकनीकी ज्ञान और दोनों की पूँजी से इस यंत्र का आविष्कार हुआ था। डॉ. राव का कहना है:
“गरीबों को फटे-पुराने कपडे दान में देना मुझे कभी पसंद नहीं था, क्यूंकि गरीब होने के बावजूद वे इससे ज्यादा के हकदार है। इसी तरह सिर्फ इसलिए कि मेरे मरीज़ गरीब है, मैं उनके लिए किसी हल्के स्तर के यंत्र का निर्माण नहीं करना चाहता था। आखिर वो भी मरीज़ है, उन्हें भी बेहतरीन इलाज करवाने का हक़ है। हमारा मानना है कि अपनी आवाज़ पर हर किसीका अधिकार है। हम किसी मरीज़ से उसकी आवाज़ हमेशा के लिए सिर्फ इसलिए नहीं छीन सकते क्योंकि वह गरीब है। इसलिए हमने इस यंत्र को बनाने के लिए सबसे बेहतरीन सामग्री का इस्तेमाल किया है।

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